यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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"विचारों की गहराई और यात्रा के अनुभवों का संगम : मोहन राकेश का आख़िरी चट्टान तक यात्रा-वृत्तान्त"
हुसैनी
हुसैनी एक ताश कम्पनी का एजेंट था जिससे मेरा परिचय स्टीमर पर हुआ।
स्टीमर की कैंटीन में मैं शाम को खाना खाने गया था। कैंटीन खचाखच भरी थी। जिस मेज़ पर मैं खाना खा रहा था, उस पर तीन व्यक्ति और थे। उनमें से जो व्यक्ति मेरे सामने बैठा था, वह इस सफ़ाई से चावलों के गोले बना-बनाकर फाँक रहा था कि उसके हस्त-लाघव पर आश्चर्य होता था। उसकी उँगलियाँ केले के पत्ते पर इस तरह चल रही थीं, जैसे उसका वास्तविक उद्देश्य पत्ते को चमका देना हो। शेष दोनों व्यक्ति आमने-सामने बैठे खाना खाने के साथ आपस में बात कर रहे थे-अगर एक के बोलने और दूसरे के सुनने को बात करना कहा जा सकता है। बोलने वाला गोरे रंग और छरहरे शरीर का नवयुवक था जिसने पतली-पतली मूँछें शायद इसलिए पाल रखी थीं कि उसके चेहरे पर कुछ तो पुरुषत्व दिखाई दे। सुननेवाला छोटे क़द और साँवले रंग का व्यक्ति था जिसके चेहरे का हड्डियाँ बाहर को निकल रही थीं।
नवयुवक अपनी पतली उँगलियों से चावलों के गिने हुए दाने उठाकर मुँह में डालता हुआ सन्तति-निरोध पर भाषण दे रहा था। दूसरा व्यक्ति बीच में कुछ कहने के लिए उसकी तरफ़ देखता, पर फिर चुप रहकर उसे अपनी बात जारी रखने देता। नवयुवक काफ़ी उत्तेजित होकर कह रहा था कि एक आम हिन्दुस्तानी को बच्चे पैदा करने का कोई अधिकार नहीं है-उसका जीवन स्तर इतना हीन है कि आबादी बढ़ाने की जगह उसे दूसरी तरह के उत्पादनों में अपनी शक्ति लगानी चाहिए।
वह बीच में पानी पीने के लिए रुका, तो दूसरा व्यक्ति अपनी छोटी-छोटी आँखें उठाकर ध्यान से उसे देखता हुआ अपने बढ़े हुए दाँतों को उघाड़कर मुस्कराया और बोला, "तुम बहुत समझदारी की बात कह रहे हो बरख़ुरदार! तुम्हारी सूझ-बूझ देखते हुए मुझे तुमसे हसद हो रहा है।" कहते हुए उसकी आँखों में ख़ास तरह की चमक आ गयी। "तुम्हारा बाप बहुत ख़ुशक़िस्मत आदमी है जो तुम्हारे-जैसा होनहार, अक्लमन्द और खूबसूरत बेटा उसे मिला है। शुक्र है खुदा का कि वह तुम्हारे बताये असूल पर नहीं चला। अगर वह भी इस असूल पर चला होता, तो कहाँ यह सूरत होती, कहाँ यह दिमाग होता और कहाँ ये अक्ल की बातें होतीं!" अपनी बात पूरी करके वह एक बार खुलकर हँसा। मैं भी साथ हँस दिया। इस पर उसने मेरी तरफ देखकर सिर हिलाया और कहा, "क्यों साहब, क्या ख़याल है?"
यह हुसैनी से मेरे परिचय की शुरुआत थी।
कुछ देर बाद मैं डेक के तख्ते पर बैठा समुद्र की तरफ देख रहा था, तो किसी ने पीछे से आकर मेरे कन्धे पर हाथ रखा। मैंने चौंककर उधर देखा, तो हुसैनी मुसकराता हुआ बोला, "क्यों साहब, अँधेरे में भी आइडिया चलता है क्या?"
मैं तख्ते पर थोड़ा एक तरफ़ को सरक गया। वह पास बैठता हुआ बोला, "अभी थोड़ी देर में चाँद निकलेगा, तब तो आइडिया अपने-आप चलेगा। मगर यार, अँधेरे में भी आइडिया चलाते जाना काफ़ी मुश्किल का काम है।" मैं एक लेखक हूँ, यह मैं पहले उसे बता चुका था।
"उसे कहाँ छोड़ आये?" मैंने पूछा।
"वह तो वहीं ट्रम्प हो गया था। उसके बाद नहीं मिला।"
और वह मुझसे बहुत घनिष्ठ ढंग से बात करने लगा। वह उन व्यक्तियों में से था जिनको दूसरों के साथ व्यवहार में किसी तरह का संकोच नहीं होता और जो दूसरे के मन में भी अपने प्रति किसी तरह का संकोच नहीं रहने देते। वह बेतकल्लुफ़ी से अपना हाथ मेरे कन्धे पर चलाता हुआ मुझे बताने लगा कि जहाज़ के किस-किस हिस्से में स्त्रियों और पुरुषों के बीच क्या-क्या तमाशा चल रहा है। अचानक अपनी बात रोककर उसने मेरे कन्धे को ज़ोर से झिंझोड दिया और ऊपर टूरिस्ट क्लास के रेलिंग की तरफ़ इशारा किया। वहाँ से कुछ युवक-युवतियाँ नीचे डेक की तरफ़ झाँक रहे थे और साथ-साथ लगे बिस्तरों पर रिमार्क कसते हुए हँस रहे थे। एक युवक अपना कैमरा आँख से लगाकर तस्वीर का फ्रेम सेट कर रहा था।
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान